ठिकाना हो न हो फिर भी ठिकाना ढूँड लेते हैं क़फ़स में रह के भी हम आशियाना ढूँड लेते हैं किताब-ए-दिल में वो ग़म को छुपा लेंगे तो क्या होगा मगर हम दर्द-ओ-ग़म का हर ख़ज़ाना ढूँड लेते हैं कभी उन को सहारे की ज़रूरत ही नहीं पड़ती परिंदे ख़ुद-ब-ख़ुद अपना ठिकाना ढूँड लेते हैं ज़माने की नज़र में क़तरा-ए-शबनम सही लेकिन कुछ ऐसे हैं जो अश्कों में फ़साना ढूँड लेते हैं ग़िज़ा हंसों को मोती की कोई ला कर नहीं देता वो ख़ुद सीपों के अंदर अपना दाना ढूँड लेते हैं मिरी तन्हाइयों का ज़िक्र जब उन तक नहीं पहुँचा तो किस की रहबरी से वो ठिकाना ढूँड लेते हैं जब उन का नाम अपनी रूह में गुदवा लिया 'स्वामी' तो फिर क्यों तर्क-ए-उल्फ़त का बहाना ढूँड लेते हैं