सख़्त मुश्किल में किया हिज्र ने आसान मुझे दूसरा इश्क़ हुआ पहले के दौरान मुझे तेरे अंदर की उदासी के मुशाबह हूँ मैं ख़ाल-ओ-ख़द से नहीं आवाज़ से पहचान मुझे अजनबी शहर में इक लुक़्मे को तरसा हुआ मैं मेज़बाँ जिस्मों ने समझा नहीं मेहमान मुझे एक ही शक्ल के सब चेहरे थे लेकिन फिर भी एक चेहरे ने तो बेहद किया हैरान मुझे मैं मोहब्बत भी मोहब्बत के एवज़ देता हूँ फिर भी हो जाता है इस काम में नुक़सान मुझे भूले-बिसरे किसी नग़्मे की सी शादाब आवाज़ रात कानों में पड़ी कर गई सुनसान मुझे जाने कब सौंप दूँ मिट्टी को ये मिट्टी का क़फ़स जाने कब देना पड़े रूह का तावान मुझे