सख़्त नाज़ुक मिज़ाज-ए-दिलबर था ख़ैर गुज़री कि दिल भी पत्थर था मुख़्तसर हाल-ए-ज़िंदगी ये है लाख सौदा था और इक सर था उन की रुख़्सत का दिन तो याद नहीं ये समझिए कि रोज़-ए-महशर था ख़ाक निभती मिरी तिरे दिल में एक शीशा था एक पत्थर था तुम मिरे घर जो आने वाले थे खोले आग़ोश सुब्ह तक दर था अब्र-ए-रहमत जो हो गया मशहूर किसी मय-कश का दामन-ए-तर था जब उन्हें शौक़ था सँवरने का एक इक आइना सिकंदर था आँसुओं की थी क्या बिसात मगर देखते देखते समुंदर था कैसी आज़ाद ज़िंदगी है 'जलील' दर-ए-दिल पर जब अपना बिस्तर था