यक़ीं से निकले तो जैसे गुमाँ की ज़द में हैं ये क्या तज़ाद है हम किस ज़ियाँ की ज़द में हैं बहुत तवील हैं गोया रुतों की ज़ंजीरें नए शगूफ़े सभी रफ़्तगाँ की ज़द में हैं उन्हें नसीब हो अब मावरा कोई साअ'त अज़ल से पेड़ बहार-ओ-ख़िज़ाँ की ज़द में हैं वही सफ़र है समुंदर भी कश्तियाँ भी वही हवाएँ अब के मगर बादबाँ की ज़द में हैं सुनो चराग़ बुझा दो तमाम खे़मे के मिरे अज़ीज़ शब-ए-इम्तिहाँ की ज़द में हैं जो हम पे अर्सा-ए-ख़ुश-मंज़री में बीत गईं कहानियाँ हैं मगर कब बयाँ की ज़द में हैं