साक़ी तिरे बग़ैर है महफ़िल से दिल उचाट सो जैसे जी उदास है सो दिल से दिल उचाट सू-ए-अदम फिरे चले जाते हैं क़ाफ़िले सब हम-सफ़र हैं ज़ीस्त है मंज़िल से दिल उचाट जिस रोज़ से कि शौक़-ए-असीरी हुआ मुझे सय्याद है शिकार-ए-अनादिल से दिल उचाट ठुकराए भी न आ के लहद फ़ातिहा कुजा मर कर हुआ हूँ उस बुत-ए-क़ातिल से दिल उचाट जुज़ मर्ग कुछ नहीं है तप-ए-हिज्र का इलाज हम नक़्श चाट कर हुए आमिल से दिल उचाट काँटों पे मिस्ल-ए-क़ैस कहाँ तक रवाँ-दवाँ लैला-ए-जाँ है जिस्म की महमिल से दिल उचाट दोज़ख़ मुझे बहिश्त के बदले क़ुबूल है ऐसा हूँ एक हूर-शमाइल से दिल उचाट झंकार से मैं चार-क़दम आगे जाऊँगा ज़िंदान में हुआ जो सलासिल से दिल उचाट मजनूँ की चाल लैला अगर दो-क़दम चले ताबूत दिल-पसंद हो महमिल से दिल उचाट क़ातिल हमारे दिल को तड़पता न छोड़ जा इक दम के वास्ते न हो बिस्मिल से दिल उचाट ऐ 'बहर' यार साथ नहीं जाइए कहाँ गुलशन से जी उदास है महफ़िल से दिल उचाट