मज़ाक़-ए-ग़म से निखरेगा शुऊ'र-ए-कारवाँ कब तक असीर-ए-रहबरी ढूँडेंगे क़दमों के निशाँ कब तक ज़रा ज़ख़्मों पे दिल के और थोड़ी सी नमक-पाशी निखरता ही नहीं देखें ये हुस्न-ए-गुलसिताँ कब तक ख़ुदी को बेच कर सज्दा कोई सज्दा नहीं होता जबीन-ए-शौक़ से कह दो तलाश-ए-आस्ताँ कब तक मिरे अफ़्कार में बालीदगी है हुस्न-ए-क़िस्मत कब तेरे होंटों पे ऐ शाइ'र हदीस-ए-दिलबराँ कब तक नुमूद-ए-सुब्ह से पहले सर-ए-मंज़िल पहुँचना है धुँदलकों से ये घबराहट अमीर-ए-कारवाँ कब तक कफ़न बाँधे हुए सर से शुऊर-ए-ज़िंदगी उभरा तिरी नज़रों में साक़ी गर्दिश-ए-रत्ल-ए-गराँ कब तक ज़माना करवटें लेता है तामीरी इरादों से न जाने तेरी आँखों में रहे ख़्वाब-ए-गिराँ कब तक असीरों का तअ'ल्लुक़ क्या बहार-ए-सहन-ए-गुलशन से क़फ़स में आएगी जाने बहार-ए-जावेदाँ कब तक ख़ुदी से काम ले तक़दीर शायद काम आ जाए हुजूम-ए-ग़म में 'फ़ाइक़' शोरिश-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ कब तक