सलीब ओ दार के क़िस्से रक़म होते ही रहते हैं क़लम की जुम्बिशों पर सर क़लम होते ही रहते हैं ये शाख़-ए-गुल है आईन-ए-नुमू से आप वाक़िफ़ हैं समझती है कि मौसम के सितम होते ही रहते हैं कभी तेरी कभी दस्त-ए-जुनूँ की बात चलती है ये अफ़्साने तो ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म होते ही रहते हैं तवज्जोह उन की अब ऐ साकिनान-ए-शहर तुम पर है हम ऐसों पर बहुत उन के करम होते ही रहते हैं तिरे बंद-ए-क़बा से रिश्ता-ए-अनफ़ास-ए-दौराँ तक कुछ उक़्दे नाख़ुनों को भी बहम होते ही रहते हैं हुजूम-ए-लाला-ओ-नसरीं हो या लब-हा-ए-शीरीं हों मिरी मौज-ए-नफ़स से ताज़ा-दम होते ही रहते हैं मिरा चाक-ए-गिरेबाँ चाक-ए-दिल से मिलने वाला है मगर ये हादसे भी बेश ओ कम होते ही रहते हैं