सँभल न पाए तो तक़्सीर-ए-वाक़ई भी नहीं हर इक पे सहल कुछ आदाब-ए-मय-कशी भी नहीं इधर उधर से हदीस-ए-ग़म-ए-जहाँ कह कर तिरी ही बात की और तेरी बात की भी नहीं वफ़ा-ए-वादा पे दिल नुक्ता-चीं है वो ख़ामोश हदीस-ए-मेहर-ओ-वफ़ा आज गुफ़्तनी भी नहीं बिखर के हुस्न-ए-जहाँ का निज़ाम क्या होगा ये बरहमी तिरी ज़ुल्फ़ों की बरहमी भी नहीं शिकस्त-ए-साग़र-ओ-मीना को ख़ाक रोता मैं गिराँ अभी मिरे दिल की शिकस्तगी भी नहीं हज़ार शुक्र कि बे-ख़्वाब है सहर के लिए वो चश्म-ए-नाज़ कि जो जागतों में थी भी नहीं ये ज़िंदगी ही तलव्वुन-मिज़ाज है ऐ दोस्त तमाम तर्क-ए-वफ़ा तेरी बे-रुख़ी भी नहीं तअ'ल्लुक़ात-ए-ज़माना की इक कड़ी के सिवा कुछ और ये तिरा पैमान-ए-दोस्ती भी नहीं करम की वजह न थी बे-सबब ख़फ़ा भी है वो मिज़ाज-ए-हुस्न से ये बात दूर थी भी नहीं