सलीक़ा इश्क़ में मेरा बड़े कमाल का था कि इख़्तियार भी दिल पर अजब मिसाल का था मैं अपने नक़्श बनाती थी जिस में बचपन से वो आईना तो किसी और ख़त-ओ-ख़ाल का था रफ़ू मैं करती रही पैरहन को और इधर गुमाँ उसे मिरे ज़ख़्मों के इंदिमाल का था ये और बात कि अब चश्म-पोश हो जाए कभी तो इल्म उसे भी हमारे हाल का था मोहब्बतों में मैं क़ाइल थी लब न खुलने की जवाब वर्ना मिरे पास हर सवाल का था दरख़्त जड़ से उखड़ने के मौसमों में भी हवा का प्यार शजर से अजब कमाल का था किताब किस की मसाफ़त की लिख रही है हवा ये क़र्ज़ उस की तरफ़ किस के माह ओ साल का था