समझ के फ़र्ज़ कभी दिन को रात मत करना

समझ के फ़र्ज़ कभी दिन को रात मत करना
गुज़रते लम्हों से तक़्सीम ज़ात मत करना

बचा कर तेज़ हवा में बिखरना पड़ता है
अना को नज़र ग़म-ए-हादसात मत करना

न जाने कौन कहाँ क्या सवाल कर बैठे
ग़ुबार-ए-राहगुज़र अपने साथ मत करना

समेटना न सर-ए-राह ख़्वाब की किर्चें
लहू-लुहान कभी अपने हाथ मत करना

नहीं गुनाह किसी शय की आरज़ू लेकिन
इस आरज़ू को ग़म-ए-काएनात मत करना

हैं दरमियाँ में अभी फ़ासले उसूलों के
क़रीब आ के अभी मुझ से बात मत करना

ज़वाल-ए-ज़ात तो 'पर्वाज़' सब की क़िस्मत है
यक़ीन-ए-दिल को मगर बे-सबात मत करना


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