समझ में कुछ नहीं आता कि क़ातिल की अदा क्या है न मरने हम को देता है न जीने ही वो देता है वो अय्याम-ए-गुज़िश्ता ज़ुल्मतों में खो गए लेकिन तुम्हारी याद का दिल में अभी तक दीप जलता है धुआँ सू-ए-फ़लक उठता है मेरी आह-ए-सोज़ाँ का इलाही ख़ैर हो दिल की न जाने बोलता क्या है मिरी लग़्ज़िश को शायद फूल तो समझे नहीं 'तालिब' गरेबाँ फ़स्ल-ए-गुल में मेरा काँटों से उलझता है