समंदर का समंदर पी चुका हूँ मगर मैं फिर भी प्यासा ही रहा हूँ बड़े रंगीन सपने देखता हूँ मैं अपने दौर का यूसुफ़ बना हूँ खिलेंगे फूल तो वो भी चुनूँगा अभी गुलशन से काँटे चुन रहा हूँ वो मेरी राह का पत्थर बना था मैं उस की राह का जलता दिया हूँ वो बादल है बरसता ही नहीं है मैं सहरा हूँ झुलसता जा रहा हूँ पराए दर्द को समझा तो 'मिदहत' अब अपने दर्द से शर्मा रहा हूँ