अगरचे बाग़-ओ-चमन की बहार है ग़ुंचा पे तू न होए तो नज़रों में ख़ार है ग़ुंचा लगी है तेग़-ए-निगह किस की ये बता बुलबुल कि टुकड़े है जिगर-ए-गुल फ़िगार है ग़ुंचा जले है इस लिए दिल बुलबुलों का ऐ गुल-रू कि तेरे मुखड़े पे जी से निसार है ग़ुंचा तिरे लबों से जो तश्बीह दीजिए तो ग़लत यूँ अपनी तरह में रंगीं हज़ार है ग़ुंचा हँसा है तू मगर उस के दहन पे ऐ गुल-रू जो मुन्फ़इल बसर-ए-शाख़-सार है ग़ुंचा ज़रूर क्या है जो गुलशन में जाएँ छोड़ तुझे तिरा ही मुँह हमें ऐ गुल-एज़ार है ग़ुंचा तू उस का बोसा जो लेता है दम-ब-दम 'अफ़सोस' किसी दहन का मगर यादगार है ग़ुंचा