सँभल कर आह भरना ऐ असीर-ए-दाम-ए-तन्हाई कहीं हाथों से छुट जाए न दामान-ए-शकेबाई अजब अंदाज़ रखती है अदा-ए-दश्त-पैमाई कि ख़ुद ही ख़ार बढ़ कर चूमते हैं पा-ए-सौदाई जो रंग-ए-हुस्न-ए-ख़ामोशी है वो खोती है गोयाई हुआ जब लब-कुशा ग़ुंचा तो बाहर बू निकल आई अभी तो बस तसव्वुर है तुम्हारे आस्ताने का अभी देखा कहाँ तुम ने मिरा शौक़-ए-जबीं-साई कुछ इस अंदाज़ से छेड़ा निगाह-ए-नाज़-ए-जानाँ ने कि रह रह कर हमारे दिल के ज़ख़्मों को हँसी आई रहे इंकार में इक़रार का ए'जाज़ भी पिन्हाँ करो ख़ून-ए-वफ़ा लेकिन ब-अंदाज़-ए-मसीहाई अरक़-आगीं जबीं इंसानियत की हो गई 'जुम्बिश' कि दौर आया है वो शर्म-ओ-हया की आँख भर आई