सँभल सँभल के यहाँ ज़िंदगी बसर की है बड़ी तवील कहानी थी मुख़्तसर की है तू मुझ को ख़ाक समझता है ख़ाक समझा कर मगर ये देख कि ये ख़ाक किस के दर की है वो जिस की छाँव में आने से जिस्म जल जाए तिरी मिसाल तो ऐ दोस्त उस शजर की है तुम्हारी याद का मरहम लगाए फिरते हैं ये चोट तुम ने जो दी है वो उम्र भर की है न सिर्फ़ पाँव हुए ज़ेहन-ओ-दिल भी शल जिस में थकन तो आज भी 'क़ैसर' उसी सफ़र की है