सँभाले अब्र-ए-करम तू सँभल भी सकती है

सँभाले अब्र-ए-करम तू सँभल भी सकती है
ये दिल की शाख़ अभी फूल-फल भी सकती है

बुझाओ मग़रिबी आतिश की बढ़ के चिंगारी
कि इस से मशरिक़ी तहज़ीब जल भी सकती है

उरूज ज़र्फ़ की हद से निकल न जाए कहीं
ये शय फ़राज़ पे जा कर फिसल भी सकती है

हम आज ज़ोर मोहब्बत का आज़माएँगे
सुना है रुख़ ये हवा का बदल भी सकती है

ये सर्द सर्द हवाएँ ये चाँदनी ये फ़िराक़
तिरे लिए ये तबीअ'त मचल भी सकती है

किसी पे मरने से पहले मुझे न था मा'लूम
कि ऐसे जीने की हसरत निकल भी सकती है

क़दम क़दम पे उजालों का एहतिमाम करो
कि चलते चलते कहीं शाम ढल भी सकती है

कमाल-ए-ज़ब्त को मेरे मिरा ख़ुदा रक्खे
ये मुफ़्लिसी मिरे टुकड़ों पे पल भी सकती है

ख़ुलूस-ए-मेहर-ओ-वफ़ा प्यार और मोहब्बत से
बदल के देखिए दुनिया बदल भी सकती है

हरी-भरी सी रुतों में ये ढल भी सकती है
ख़िज़ाँ की ज़र्द सी रंगत बदल भी सकती है

अदब की शान बनूँ आरज़ू ये है 'ज़रयाब'
मगर ये क्या मिरी हसरत निकल भी सकती है


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