शहर-ए-तारीक को सपनों का नगर होने तक मुंतज़िर बैठी हूँ इस शब की सहर होने तक हिज्र में हालत-ए-दिल कैसे सँभल पाएगी राह-ए-दुश्वार से यादों का गुज़र होने तक रात की गोद में अरमान लिए बैठी हूँ काश आ जाए वो ये रात बसर होने तक उस का मुझ से है तक़ाज़ा कि गुलिस्ताँ में रहूँ अपनी रानाई का फूलों पे असर होने तक प्यार को अहल-ए-ज़माना से बचा कर रखिए प्यार की अपनी सभी मंज़िलें सर होने तक वो तो आ जाएगा मुझ को ये यक़ीं है लेकिन मिट न जाऊँ कहीं मैं उस को ख़बर होने तक तुम ने 'ज़रयाब' यूँही नग़्मा सुनाया था उसे उस को गाना है मगर प्यार अमर होने तक