समेट कर तिरी यादों के फूल दामन में बसा रहा हूँ बहारों को दिल के गुलशन में अभी ज़िया-ए-तसव्वुर से आँख रौशन है अभी बहार-ए-चराग़ाँ है दिल के आँगन में तिरे बग़ैर है बे-रंग रौनक़-ए-गुलशन ये और बात कि खुलते हैं फूल गुलशन में घटाओं से तो बरसती हों बिजलियाँ जैसे कहाँ से आएँगी ठंडी हवाएँ सावन में छुपा दिया मिरी नज़रों से ख़ुद मुझे उस ने उतर गई है जो तस्वीर दिल के दर्पन में कहीं नज़र में नहीं दूर दूर तक साहिल भँवर की नाव के मानिंद जान है तन में क़रीब-ए-दिल भी हैं वो दूर भी हैं नज़रों से कुछ अपने-पन की झलक भी है अजनबी-पन में रुकी रुकी सी है रफ़्तार-ए-ज़िंदगी जैसे हज़ार ख़ून रगों में है जान है तन में बरस पड़े मिरी आँखों से यक-ब-यक आँसू किसी की याद जब आई बरसते सावन में पता नहीं है 'रिशी' दूर दूर मंज़िल का किधर को जाएँ हमें रात हो गई बन में