सामने आओ कि मैं चेहरा-ए-ज़ेबा देखूँ और इस आईने में अक्स फिर अपना देखूँ तुम ही मंज़िल हो तुम ही गौहर-ए-मक़्सूद मिरा देख कर तुम को मैं क्या और तमाशा देखूँ तुम ही बतलाओ कि इस कार-गह-ए-हस्ती में क्या न देखूँ मैं अगर देखूँ तो क्या क्या देखूँ तुझ को ये नाज़ कोई पा न सकेगा हरगिज़ मुझ को ये ज़िद कि तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा देखूँ तू ने चाहा तो बहुत गर्दिश-ए-अय्याम कि मैं ख़ुद तमाशा बनूँ अपना ही तमाशा देखूँ काश इस ज़ीस्त में वो वक़्त भी आए 'महबूब' चार सू दहर में ईमाँ का उजाला देखूँ