सामने इक बे-रहम हक़ीक़त नंगी हो कर नाचती है उस की आँखों से अब मेरी मौत की ख़्वाहिश झाँकती है जिस्म का जादू इस दुनिया में सर चढ़ कर जब बोलता है रूह मिरी शर्मिंदा हो कर अपना चेहरा ढाँपती है उस की झोली में सब खोटे सिक्के डाले जाएँगे जानती है ये अंधी भिकारन फिर भी दिन भर माँगती है मेरा ख़ून पिया तो उस को ताज़ा लहू की चाट लगी अब वो नागिन अपनी ज़बाँ से अपना लहू भी चाटती है अब की बार ऐ बुज़दिल क़िस्मत खुल कर मेरे सामने आ क्यूँ इक धचका रोज़ लगा कर बाक़ी कल पर टालती है माज़ी की तुर्बत से निकल आती है किसी की याद की लाश मेरी सोच मिरी दुश्मन है रोज़ मुसीबत डालती है सहरा का बादल दो बूँदें बरसा कर उड़ जाता है प्यासी बंजर बाँझ ज़मीं कुछ और ज़ियादा हाँफती है अब तक सोई हुई थी वो आसाइश के गहवारे में अंगड़ाई सी ले कर 'शबनम' आज अना क्यूँ जागती है