सिमट न पाए कि हर-सू बिखर गए थे हम हुजूम-ए-यास में क्या सोच कर गए थे हम हुए थे राख तो कुछ रास्ता ही ऐसा था दबी थी आग ज़मीं में जिधर गए थे हम ये क्या कि फिर से यहाँ हुकमरानी-ए-शब है हिसार-ए-शब तो अभी तोड़ कर गए थे हम वो क्या ख़ुशी थी कि बर्बाद कर गई सब कुछ वो कैसा ग़म था कि जिस से सँवर गए थे हम मिली थीं फिर भी वो दीवारें अजनबी बन कर अगरचे शाम से पहले ही घर गए थे हम घिरे थे मस्लहत-अंदेशियों में पूरी तरह जो दिल का साथ न देते तो मर गए थे हम