समुंदरों में अगर ख़लफ़िशार-ए-आब न हो सरों पे साया-फ़गन ये ग़ुबार-ए-आब न हो वो आसमान समझता है अपनी आँखों को उसे भी मेरी तरह इंतिज़ार-ए-आब न हो हर एक लब पे हैं नग़्मात ख़ुश्क-साली के अब इस तरफ़ करम-ए-बे-शुमार-ए-आब न हो कहीं फ़रेब न निकले पुकार दरिया की हम आब समझे हैं जिस को ग़ुबार-ए-आब न हो फिर एहतिमाम से आए हैं घिर के अब्र मगर वो क्या करे कि जिसे ए'तिबार-ए-आब न हो सियाह होने लगा है दयार-ए-तिश्ना-लबी अब इस मक़ाम से रौशन शरार-ए-आब न हो जो घर से निकला है पानी की खोज में 'शाहिद' कहीं वो दफ़्न सर-ए-रहगुज़ार आब न हो