संग को तकिया बना ख़्वाब को चादर कर के जिस जगह थकता हूँ पड़ रहता हूँ बिस्तर कर के अब किसी आँख का जादू नहीं चलता मुझ पर वो नज़र भूल गई है मुझे पत्थर कर के यार लोगों ने बहुत रंज दिए थे मुझ को जा चुका है जो हिसाब अपना बराबर कर के उस को भी पड़ गया इक और ज़रूरी कोई काम मैं भी घर पर न रहा वक़्त मुक़र्रर कर के पूछना चाहता हूँ उस निगह-ओ-दिल से 'जमाल' किस को आबाद किया है मुझे बे-घर कर के