तिरी गली में जो धूनी रमाए बैठे हैं अजल-रसीदा हैं मरने को आए बैठे हैं करो हमारी भी ख़ातिर निकल के पर्दे से कि मेहमाँ हैं तुम्हारे बुलाए बैठे हैं हमारी बग़लों में बू-ए-मुराद आती है तुम्हारे पहलू में हम जब से आए बैठे हैं दिया जो इत्र उन्हीं आशिक़ों को मिट्टी का कहा कि हम न मलेंगे नहाए बैठे हैं उठा के बज़्म से ख़ल्वत में तुम को ले जाते ये सोचते हैं कि अपने पराए बैठे हैं वो शब को बज़्म में हँस हँस के पूछते थे हमें ये कौन हैं कि जो आँसू बहाए बैठे हैं अज़ल से है ये दो-आलम में रौशनी जिस की उसी चराग़ से हम लौ लगाए बैठे हैं बहार ओ निकहत-ए-गुल होती हैं निसार उन पर चमन में रंग वो अपना जमाए बैठे हैं यहाँ भी चैन से सोने न पाएँगे अफ़सोस मज़ार में भी नकीरैन आए बैठे हैं उठाओगे हमें अब क्या तुम अपनी महफ़िल से हम आरज़ू-ओ-हवस के बिठाए बैठे हैं बहार में नई सूझी है उन को गुस्ताख़ी उरूस-ए-बाग़ का घूंगट उठाए बैठे हैं फ़रेफ़्ता तिरी इस तिरछी तिरछी चितवन के छुरी कलेजों में अपने लगाए बैठे हैं हमारे दफ़्न-ओ-कफ़न की बस अब करो तदबीर ख़बर भी है तुम्हें हम ज़हर खाए बैठे हैं ये कुछ न समझेंगे सौदाइयों पे रहम करो हवास-ओ-होश जुनूँ में उड़ाए बैठे हैं फ़रिश्ते देखिए करते हैं हम से क्या पुर्सिश मरे पड़े थे लहद में जिलाए बैठे हैं फ़क़ीर क्यूँ ये हुए हैं 'शरफ़' से पूछो तो भभूत मल के जो धूनी रमाए बैठे हैं