साँप जैसे कि कभी आँख झपकता ही नहीं यूँ कोई दर्द है सीने में जो सोता ही नहीं उस से झगड़ूँ भी तो किस बात पे झगड़ूँ आख़िर जब मिरे साथ वो होते हुए होता ही नहीं हिज्र हर शाम बुझी आँख लिए आता है वस्ल का चाँद किसी छत पे निकलता ही नहीं राब्तों की है वो फ़िहरिस्त में ख़ामोश कहीं एक नंबर कि जो इस्क्रीन पे आता ही नहीं तुर्बत-ए-ज़ब्त में यादों की सिलें दिल पे लिए तेरे चेहरे को निगाहों से हटाता ही नहीं मेरे आ'साब पे तारी है मोहब्बत की थकन इतनी ज़्यादा कि किसी हाल में रोता ही नहीं चाँद 'मसऊद' ख़लाओं में है टूटा-फूटा इस लिए मैं तो कभी ईद मनाता ही नहीं