उस को तन्हाई में सोचूँ तो मचल जाता है दिल मिरा कैसा है जो सोचों से जल जाता है मेरी तन्हाई सुना दे जो मुझे मेरी ग़ज़ल मेरा पैकर तिरी तस्वीर में ढल जाता है रो'ब-ए-ख़ामोशी है या इस में है पोशीदा जलाल ग़म सदा दे के ही चुप-चाप निकल जाता है मेरी ख़ामोशी मुझे देती है क़ुव्वत तब ही ठोकरें खा के मिरा दिल जो सँभल जाता है यूँ तो बजते हैं कई साज़ तख़य्युल में मिरे दिल मगर नग़्मा-ए-जाँ सुन के बहल जाता है कौन कहता है कि बाज़ार-ए-वफ़ा में दिल का सिक्का जैसा भी हो जैसा भी हो चल जाता है उस को देखा ही नहीं ठीक से 'फ़हमी' लेकिन नाम पर उस के ये दिल वहशी मचल जाता है