साँप सा लेटा हुआ सुनसान रस्ता सामने था ख़तरा आग़ाज़-ए-सफ़र में एक ऐसा सामने था दश्त में घमसान का वो रन पड़ा था कुछ न पूछो धूप मेरी पुश्त पर थी और साया सामने था अब तो उन आँखों के आगे आईना है और मैं हूँ हाए मिज़्गाँ खोलने से पहले क्या क्या सामने था बुज़दिल ऐसे थे भिगो पाए न अपने हाथ तक हम दोनों बाज़ू थे सलामत और दरिया सामने था मैं मसाफ़त की तरह था बीच में सिमटा हुआ सा पुश्त की जानिब समुंदर और सहरा सामने था वस्ल के ख़्वाबों में अब वो रौशनी बाक़ी नहीं थी हिज्र की रातों में सोने का नतीजा सामने था