साक़ी तिरे साग़र के तलबगार बहुत हैं मय कम है मगर बज़्म में मय-ख़्वार बहुत हैं चौखट से तिरी उठ के न जाएँगे कहीं और दीवाने हैं फिर भी ये समझदार बहुत हैं है उन की भी आँखों में तिरे दीद की ख़्वाहिश जो हैं पस-ए-दीवार वो ख़ुद्दार बहुत हैं बस जिंस-ए-वफ़ा की कोई क़ीमत नहीं मिलती मिट्टी भी जो बेचो तो ख़रीदार बहुत हैं कहती हैं ये तालाब में बहती हुई लाशें इस गाँव में क़ातिल के तरफ़-दार बहुत हैं इस दिल के धड़कने की सदा कौन सुनेगा इस मुल्क में ईंटों के परस्तार बहुत हैं कोई भी सर-ए-दार नज़र आया न हम को कहने के लिए मीसम-ए-तम्मार बहुत हैं वारिस कोई मिलता नहीं अब लौह-ओ-क़लम का कहने को तो 'रिज़वान' क़लमकार बहुत हैं