साक़ी तो मोहब्बत से दो घूँट पिलाएगा लेकिन भरी महफ़िल में एहसान जताएगा जिस हाथ के पत्थर ने औरों को किया ज़ख़्मी पत्थर के कभी नीचे वो हाथ भी आएगा जब मुंसिफ़-ओ-क़ातिल में कुछ फ़र्क़ नहीं बाक़ी फिर कौन अदालत की ज़ंजीर हिलाएगा ज़ालिम को जो मिल जाए गर छूट गुलिस्ताँ में वो नन्हे परिंदों को रह रह के सताएगा जब दर्द में डूबी हो तस्वीर ज़माने की फिर नग़्मा-ए-उल्फ़त तू किस राग में गाएगा अल्फ़ाज़ के पर्दे में हर बात छुपा 'इरफ़ाँ' क्या क्या है तिरे दिल में ये लहजा बताएगा