सर जज़ीरों के फिर से उभरने लगे वो जो पानी चढ़े थे उतरने लगे अब किसी दोस्त से कोई शिकवा नहीं वक़्त के साथ सब ज़ख़्म भरने लगे हम ने माज़ी में ठुकराई हैं मंज़िलें रास्ते में कहाँ हम ठहरने लगे मौज-दर-मौज ख़ुश्की थी पेश-ए-नज़र शोर अंदर के दरिया भी करने लगे ऐसे क्या जुर्म सरज़द हुए अर्ज़ पर लोग अपने ही साए से डरने लगे आज फिर आप लाग़र हैं सूरज मियाँ धूप में लोग फिर से ठिठुरने लगे कौन से मंसबों की मोहब्बत में हम अपने मंसब से नीचे उतरने लगे तुम ने सहरा में छोड़े थे जो नक़्श-ए-पा आज वो आँधियों में बिखरने लगे