सर में जब इश्क़ का सौदा न रहा क्या कहें ज़ीस्त में क्या क्या न रहा अब तो दुनिया भी वो दुनिया न रही अब तिरा ध्यान भी उतना न रहा क़िस्सा-ए-शौक़ सुनाऊँ किस को राज़दारी का ज़माना न रहा ज़िंदगी जिस की तमन्ना में कटी वो मिरे हाल से बेगाना रहा डेरे डाले हैं ख़िज़ाँ ने चौ-देस गुल तो गुल बाग़ में काँटा न रहा दिन दहाड़े ये लहू की होली ख़ल्क़ को ख़ौफ़ ख़ुदा का न रहा अब तो सो जाओ सितम के मारो आसमाँ पर कोई तारा न रहा