सर उठाए हैं आसमान कई मैं अकेला हूँ और कमान कई हाल दुनिया का पूछिए मुझ से मुझ में रहते हैं ख़ानदान कई हर क़दम इम्तिहान है मेरा हो गए मेरे मेहरबान कई बे-ज़बाँ हो गए परिंदे जब नज़्र-ए-आतिश हुए मकान कई लोग आईना उस को कहते हैं मुँह में रखता है जो ज़बान कई ज़िंदगानी तिरे सिवा भी और हम को देने हैं इम्तिहान कई मैं सुनाऊँ मगर कहाँ से 'क़मर' मुझ में पिन्हाँ हैं दास्तान कई