सर्द मौसम की ख़ता थी न ज़माने की थी शम्अ' को जिस ने बुझाया वो हवा मेरी थी इम्तिहाँ रोज़ लिया करता है मेरा अब वो आज़माने की कभी जिस से गुज़ारिश की थी कर चुका था मैं समुंदर से किनारा कब का जिस जगह डूबा था मैं कहते हैं साहिल की थी हिज्र-ओ-क़ुर्बत के बने इतने फ़साने कैसे चाँदनी छत पे मिरी इतनी कहाँ बिखरी थी क्यूँ तपिश मुझ में है क्यूँ जिस्म सियह होता है रहगुज़र में तो मिरे धूप कहाँ उतरी थी अब कोई ख़्वाब न आँखों में तसव्वुर है 'बशर' वर्ना आँखों में मिरी नींद कहाँ रहती थी