सर-ए-नियाज़ झुकाना कोई मज़ाक़ नहीं अना-ए-क़ल्ब मिटाना कोई मज़ाक़ नहीं लबों पे आह ब-हर-हाल आ ही जाती है जिगर की चोट छुपाना कोई मज़ाक़ नहीं नुक़ूश-ए-क़ल्ब मिटाने से मिट नहीं सकते किसी को दिल से भुलाना कोई मज़ाक़ नहीं हँसी हँसी में भी क्या क्या गुरेज़-पाई है तराशते हैं बहाना कोई मज़ाक़ नहीं जहाँ अदब में सियासत चली जाती है वहाँ भी रंग जमाना कोई मज़ाक़ नहीं निकालते हो ज़मीनें नई नई लेकिन रदीफ़ का भी निभाना कोई मज़ाक़ नहीं जो अहल-ए-इल्म हैं काँटे हैं उन की राहों में अब उन को 'ताज' हटना कोई मज़ाक़ नहीं