सरगर्म-ए-सफ़र तो हूँ लेकिन मंज़िल का निशाँ मालूम नहीं उठने को तो उट्ठे हैं ये क़दम जाना है कहाँ मालूम नहीं शादाबी-ए-गुलशन का मंज़र है ज़ेहन में तो महफ़ूज़ मगर कब शाख़ जली कब फूल लुटे कब आई ख़िज़ाँ मालूम नहीं कड़कन भी फ़ज़ा में जारी है कौंदे भी लपकते जाते हैं लहरा के गिरेगी किस किस पर ये बर्क़-ए-तपाँ मालूम नहीं हम दश्त-नशीं हैं गुलशन की रंगीन फ़ज़ाएँ क्या जानें काँटों की तो बस्ती देखी है फूलों का जहाँ मालूम नहीं प्यासा है मिरी ही तरह मगर प्यास अपनी बुझाने की ख़ातिर जाता है कहाँ धीरे धीरे ये अब्र-ए-रवाँ मालूम नहीं हर साँस के नाज़ुक वक़्फ़ा पर दम ले के ये चलती है 'अह्मर' ठहरेगी मगर किस मंज़िल पर ये उम्र-ए-रवाँ मालूम नहीं