सरहद-ए-जिस्म से बाहर कहीं घर लिक्खा था रूह पर अपनी ख़लाओं का सफ़र लिक्खा था हम भटकते रहे सदियों जिसे पढ़ने के लिए अपने अंदर वो कहीं हर्फ़-ए-हुनर लिक्खा था आज उन आँखों में देखा तो मिला दश्त-ए-ख़ला हम ने जिन आँखों में इक ख़्वाब-नगर लिक्खा था अपने घर में इसी एहसास ने जीने न दिया अपने हाथों पे किसी और का घर लिक्खा था ज़िंदगी एक सुलगता हुआ सहरा था जहाँ सब की आँखों में सराबों का भँवर लिक्खा था कौन था मुझ में कि जिस ने मुझे पढ़ने न दिया मेरे चेहरे पे मिरा नाम अगर लिक्खा था अपनी ही ज़ात के हाले में रहे हम 'आज़ाद' अन-गिनत दाएरों का या'नी सफ़र लिक्खा था