लिख कर वरक़-ए-दिल से मिटाने नहीं होते कुछ लफ़्ज़ हैं ऐसे जो पुराने नहीं होते जब चाहे कोई फूँक दे ख़्वाबों के नशेमन आँखों के उजड़ने के ज़माने नहीं होते जो ज़ख़्म अज़ीज़ों ने मोहब्बत से दिए हों वो ज़ख़्म ज़माने को दिखाने नहीं होते हो जाए जहाँ शाम वहीं उन का बसेरा आवारा परिंदों के ठिकाने नहीं होते बे-वजह तअल्लुक़ कोई बे-नाम रिफ़ाक़त जीने के लिए कम ये बहाने नहीं होते कहने को तो इस शहर में कुछ भी नहीं बदला मौसम मगर अब उतने सुहाने नहीं होते सीने में कसक बन के बसे रहते हैं बरसों लम्हे जो पलट कर कभी आने नहीं होते आशुफ़्ता-सरी में हुनर-ए-हर्फ़-ओ-नवा क्या लफ़्ज़ों में बयाँ ग़म के फ़साने नहीं होते 'मख़मूर' ये अब क्या है कि बार-ए-ग़म-ए-दिल से बोझल मिरे एहसास के शाने नहीं होते