सारी बस्ती में रफ़ीक़-ए-मो'तबर कोई नहीं ऐसी वीरानी कि ता-हद्द-ए-नज़र कोई नहीं इस लिए महफ़िल में शायद जल्वा-गर कोई नहीं सब तमाशा-गर हैं लेकिन दीदा-वर कोई नहीं भीड़ तो ऐसी है राहों पर कि चलना है मुहाल मेरी तन्हाई कि मेरा हम-सफ़र कोई नहीं हम तो ख़ुशबू हैं बिखर जाते हैं गुल से छूट कर हम यहाँ बे-घर हुए फिर अपना घर कोई नहीं बंद होता है अगर इक दर तो खुलते हैं हज़ार ये न कहना अब कि तेरा दाद-गर कोई नहीं फ़र्त-ए-ग़म में हम उसी मंज़िल पे जा पहोंचे जहाँ हम-ज़बाँ कोई नहीं है हम-सफ़र कोई नहीं आइना टूटे तो मिल जाते हैं सदहा शीशागर दिल अगर टूटे तो उस का चारागर कोई नहीं बे-नियाज़-ए-संग-ए-दर जब तक था मैं दर थे हज़ार अब जो संग-ए-दर की हसरत है तो दर कोई नहीं अल्लह अल्लाह फ़ित्ना-ए-अय्याम की नैरंगियाँ हर तरफ़ शीशा-शिकन हैं शीशागर कोई नहीं हम 'मुसव्विर' उन को ढूँढें भी तो अब ढूँढें कहाँ थे जहाँ रस्ते वहाँ अब रहगुज़र कोई नहीं