सर्व-क़द लाला-रुख़ ओ ग़ुंचा-दहन याद आया फिर बहार आई मुझे लुत्फ़-ए-चमन याद आया गो कि थी सल्तनत-ए-मिस्र मगर आख़िर-ए-कार इस हुकूमत पे भी यूसुफ़ को वतन याद आया रग-ए-गुल पर है कभी और कभी ग़ुंचे पे निगाह बाग़ में किस की कमर किस का दहन याद आया सफ़र-ए-मुल्क-ए-अदम की हुई ऐसी उजलत ज़ाद-ए-रह कुछ न ब-जुज़ गोर-ओ-कफ़न याद आया सोहबत-ए-लाला-रुख़ाँ अहद-ए-शबाब-ओ-शब-ए-वस्ल मय-ए-कोहना जो मिली दाग़-ए-कुहन याद आया जब से आया है नज़र ये तिरा हुस्न-ए-बे-दाग़ कब्क को माह न बुलबुल को चमन याद आया तेरे सौदाई को फिर जोश हुआ वहशत का क़ैदी-ए-ज़ुल्फ़ को फिर तौक़-ओ-रसन याद आया पान खा कर जो उगाल आप ने थूका साहब जौहरी महव हुए लाल-ए-यमन याद आया ब'अद मुद्दत के तलब आप ने बंदे को किया शुक्र-सद-शुक्र मैं ऐ मुश्फ़िक़-ए-मन याद आया फ़स्ल-ए-गुल आते ही 'आग़ा' ने भी वहशत की ली कैसी ये चाल चला किस का चलन याद आया