सताता वो अगर फ़ितरत से हट के तो पत्थर मारता मैं भी पलट के जो मैं ने इंतिज़ार-ए-यार खींचा मिरा घर बन गई दुनिया सिमट के बहुत कुछ है नफ़स की अंजुमन में मगर मैं जी रहा हूँ सब से हट के मैं उन ख़ामोशियों में रह रहा हूँ जहाँ आती हैं आवाज़ें पलट के दिए की लौ ज़रा जो डगमगाई ज़मीं पर आसमाँ आया झपट के ये सच है मैं वही हूँ तू वही है मगर अब साँस ले कुछ दूर हट के गुज़ारा दिन मशक़्क़त करते करते गुज़ारी रात पत्थर से लिपट के तिरे बारे में सोचे जा रहा हूँ मगर अब लग रहे हैं दिल को झटके