मैं बहारों के रूप में गुम था जब तुझे मुझ से कुछ तबस्सुम था था वो अपने ही ख़ौफ़ का महकूम जिस की आवाज़ में तहक्कुम था वस्ल तेरा रहा न राज़ कि सुब्ह दर-ओ-दीवार पर तबस्सुम था मेरे शे'रों में ढल सका न कभी जो मिरी रूह में तरन्नुम था मैं पयम्बर न था मगर मुझ से माह-ओ-ख़ुरशीद को तकल्लुम था सब बहाने थे कूचा-गर्दी के कौन तेरी तलाश में गुम था मेरा साहिल न बन सका 'सहबा' मेरी फ़ितरत में जो तलातुम था