साथियो जो अहद बाँधा है उसे तोड़ा न जाए जिस्म में जब तक लहू से मअ'रका हारा न जाए अहद-ए-माज़ी में भी है कोह-ए-निदा जैसा तिलिस्म ये भी वो आवाज़ है मुड़ कर जिसे देखा न जाए इस क़दर रास आ गई हैं ज़ात की वीरानियाँ ख़ुद ये ख़्वाहिश हो रही है दिल का सन्नाटा न जाए इस से आगे वापसी का रास्ता कोई नहीं जो यहाँ से लौटना चाहे उसे रोका न जाए जिस से दिल वाबस्ता हो बे-इंतिहा शिद्दत के साथ भूल कर भी उस तअ'ल्लुक़ को कभी परखा न जाए याद उस की फिर कहीं बरसों न आए उस के बा'द इतना जी भर के भी आज उस के लिए रोया न जाए मेरे दुख सुख मेरे अंदर ज़िंदा हैं सब की तरह शहर के लोगों से मुझ को मुख़्तलिफ़ समझा न जाए