सवाल-ए-इश्क़ पर ता-हश्र चुप रहना पड़ा मुझ को हर इक इल्ज़ाम को हँसते हुए सहना पड़ा मुझ को कभी मग़रूर तूफ़ानों को भी ठुकरा दिया मैं ने कभी इक मौज-ए-ग़म के साथ ही बहना पड़ा मुझ को सुकून-ए-दिल बड़ी दौलत सही ऐ हम-नशीं लेकिन सुकूँ पा कर भी अक्सर मुज़्तरिब रहना पड़ा मुझ को ज़माना किस क़दर बे-गाना-ए-रस्म-ए-मोहब्बत था यहाँ तो ख़ुद से भी ना-आश्ना रहना पड़ा मुझ को 'रविश' इस बज़्म-ए-रंगीं में सुकूत-ए-ग़म का अफ़्साना कहा जाता न था मुझ से मगर कहना पड़ा मुझ को