सवाल-ए-सुब्ह-ए-चमन ज़ुल्मत-ए-ख़िज़ाँ से उठा ये नफ़अ कम तो नहीं है जो इस ज़ियाँ से उठा सफ़ीना-रानी-ए-महताब देखता कोई कि इक तलातुम-ए-ज़ौ जू-ए-कहकहशाँ से उठा ग़ुबार-ए-माह कि मक़्सूम था ख़लाओं का बिखर गया तो तिरे संग-ए-आस्ताँ से उठा ग़म-ए-ज़माना तिरे नाज़ क्या उठाऊँगा कि नाज़-ए-दोस्त भी कम मुझ से सरगिराँ से उठा मिरे हबीब बहुत कम-सबात है दुनिया मिरे हबीब बस अब हाथ इम्तिहाँ से उठा बयान-ए-लग़्ज़िश-ए-आदम न कर कि वो फ़ित्ना मिरी ज़मीं से नहीं तेरे आसमाँ से उठा कहाँ चले हो लिए नक़्द-ए-जान-ओ-दिल 'सहबा' कि कारोबार-ए-वफ़ा शहर-ए-दिल-बराँ से उठा