साया-ए-बे-अमाँ से क्या हासिल ज़िंदगी इस जहाँ से क्या हासिल कुछ भी देखा न हम ने जी भर के ऐसी उम्र-ए-रवाँ से क्या हासिल दिल है मेरा तो ग़म नहीं मेरा ऐसे रब्त-ए-निहाँ से क्या हासिल जब क़दम अपने उठ न पाते हों तेज़ी-ए-हमरहाँ से क्या हासिल नक़्द-ए-जाँ गर अज़ीज़ है तो 'सबा' ज़िक्र-ए-कू-ए-बुताँ से क्या हासिल