सायों से लिपट रहे थे साए दिल फिर भी फ़ज़ा में जगमगाए बे-सर्फ़ा भटक रही थीं राहें हम नूर-ए-सहर को ढूँड लाए ये गर्दिश-ए-रोज़गार क्या है हम शाम-ओ-सहर को देख आए हर सुब्ह तिरी नज़र का परतव हर शाम तिरी भवों के साए है फ़स्ल-ए-बहार का ये दस्तूर जो आए चमन में मुस्कुराए क्या चीज़ है ये फ़साना-ए-दिल जब कहने लगें तो भूल जाए तुम ही न समझ सके मिरी बात अब किस की समझ में बात आए सूनी रही इंतिज़ार की रात अश्कों ने बहुत दिए जलाए वो दिन जो बहार-ए-ज़िंदगी थे वो दिन कभी लौट कर न आए