सेहर-ए-तलब न ख़्वाब-ए-फ़ुसूँ मुझ को मिल गया नींद आ गई तो ख़ुद ही सुकूँ मुझ को मिल गया मैं चाहता हूँ ख़ाक उड़ाऊँ जहान की ये कैसी आग कैसा जुनूँ मुझ को मिल गया ये फूल ले कर उस की तरफ़ जा रहा था मैं लेकिन वो रास्ते में ही क्यों मुझ को मिल गया कल तक तो आँसूओं से परेशाँ था और अब अहवाल-ए-दिल भी आज ज़ुबूँ मुझ को मिल गया उस पेड़ को घमंड बहुत था बहार में लेकिन ख़िज़ाँ में वो भी निगूँ मुझ को मिल गया इक याद घर में साए की सूरत रही 'फ़िदा' इक अक्स आइने के दरूँ मुझ को मिल गया