शाख़ से पत्ते परिंदे आशियाँ से जा चुके कैसी रुत है सब मकीं अपने मकाँ से जा चुके मैं ख़लाओं में भटकने को अकेला रह गया मेरे साथी चाँद-तारे आसमाँ पर जा चुके ख़ुश्क पत्ते उड़ते फिरते हैं यहाँ अब जा-ब-जा रंग-ओ-निकहत के मुसाफ़िर गुल्सिताँ तक जा चुके तेरे क़ाबू में थे जब तेरे थे अब तेरे नहीं उड़ के अब अल्फ़ाज़ के पंछी ज़बाँ से जा चुके कह रहे हैं दर्द में डूबे हुए दीवार-ओ-दर ढूँडते फिरते हो जिन को तुम यहाँ से जा चुके ज़िंदगी में देखने थे ये भी दिन 'ख़ावर' हमें जो कभी बिछड़े न थे वहम-ओ-गुमाँ से जा चुके