ख़ूँ रुलाती रही इक उम्र-ए-शब-ए-तार मुझे तब कहीं जा के मिले सुब्ह के आसार मुझे मैं न यूसुफ़ हूँ न ये शहर-ए-ज़ुलेख़ा यारो क्यों चले आए हो ले कर सर-ए-बाज़ार मुझे घर में लाई तो है बेताबी-ए-दिल देख ज़रा कहीं पहचान न लें ये दर-ओ-दीवार मुझे मैं तो हूँ सरहद-ए-इम्काँ से गुज़रने वाला पा सकेगी न कभी वक़्त की रफ़्तार मुझे तही दामन हूँ मगर अहल-ए-हवस के आगे रोकता है लब-ए-इज़हार से पिंदार मुझे मेरे दुश्मन तो कभी वार न करते लेकिन मेरे अपनों ने 'सफ़ी' कर दिया लाचार मुझे