शाम कजलाई हुई रात अभागन जैसी रुत नहीं आती किसी गाँव में सावन जैसी रंग टेसू में खिले हैं तिरी चुनरी की तरह बन में फूलों की महक है तिरे आँगन जैसी उस की आवाज़ में है सात सुरों का संगीत बात भी वो करे तो बजती है झाँझन जैसी रात की वैश्या लाख आँखों में काजल पारे सुब्ह माँग अपनी सजाएगी सुहागन जैसी एक पल बिछ्ड़ें तो लगता है युगों का बन-बास और जब तक न मिलें रहती है उलझन जैसी तू अलग रूठी हुई है वो अलग रूठा हुआ गोरी किस बात पे साजन से है अन-बन जैसी आँच सी लगती है पहलू में तिरी साँसों की घाव पर ठंडी हवा है तिरे दामन जैसी मिरी आँखों में दिल-आवेज़ समाँ है 'इशरत' फूलों पर ओस की हर बूँद है दर्पन जैसी